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ग़ालिब की ख़ासी

ग़ालिब की ख़ासी  (हर चीज़ का कोई मतलब हो यह जरूरी तो नहीं) हफ्ते भर का झोल झाल, और फालतू की बातों में ग़ुम एक खबर,एक बेहद ही जरूरी, कानों में शहद सी घुलने वाली खबर थी कानपुर की , की अब कानपुर सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर बंदरो के आतंक को ख़त्म करेंगे लंगूर! लेकिन फिर सोचने वाली बात यह है की  लंगूरों को कौन रुख़सत कराएगा ? हमेशा से ऐसा ही तो होता आया है, हम भी किसी बंदर को ले आते है, और फिर उससे बचने के विकल्प के तौर पर कोई लंगूर। और हास्य तो यह है की वो कुछ भी हो, गधे - खच्चर हम ही बने रह जाते है। इतिहास गवाह है, गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला न खुद कभी खुश हुआ है और ना ही किसी को रहने दिया है, ग़ालिब को आज फिर होश आया, की किस कमवक्त का उड़ता हुआ तीर आया मेरे पे आया ??? कानून गए सो गए, कानून की विदाई का क्रेडिट भी गया, तो अब लाने की तबज़्ज़ो भी क्यों ??? वीर से माफीवीर बने नए नए अभिनेता, जो नेता की पोशाक में विचरण करते है, अक्सर सरगर्मी में अपने आकाओं को भूल जाते है। सब की अपनी अपनी काबिलियत और हुनर होता है, सोचो थूक कर चाटने की प्रतियोगिता में आप कभी नेता से जीत सकते हो ? वो उनका काम है, और हमारा उनके इस तम

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