कुत्ते का भूत

एक मोहल्ला था हक़ीक़त नाम का, कुछ धड़ो में बटा हुआ। एक तरफ कुछ बच्चे पुराना टायर घुमा कर खेलते रहते थे और उन में से कुछ पढ़ने की कोशिश किया करते थे। 

पूरे मोहल्ले में एक ही सीधी सड़क थी, उस सड़क के किनारे एक बिजली का खम्बा था जो कई काम में आता था। बच्चे रात को उसके नीचे पढ़ा करते थे, एक बच्चे ने उस पर जमहूरीयत लिख दिया था, मानो उस खम्बे का नाम ही जम्हूरियत ही पड़ गया हो। 

कोई कहानी नहीं है उस नाम की, बस बच्चे ने आज ही सीखा है लिखना, सो जहाँ जगह मिली, लिख दिया। यह बच्चे तो ऐसे ही है, अगर मौका मिला तो आसमां पर भी कुछ लिख ही देंगे। 

खैर इस सब से किसी कोई मतलब है भी नहीं।

हक़ीक़त में एक कुत्ता भी था, उस मोहल्ले के रईसज़ादो का पालतू।

वो रोज़ अपने महल से बाहर निकलते और कुत्ते को दूध रोटी खिलाते, और सिखाते भी की उसी खंबे पर अपनी शंका का निदान करना।

कुत्ता दिन में दस बार जम्हूरियत के खम्बे पर लघु और दीर्घ शंका का निदान करता।

किसी ने कभी इसके लिए आवाज़ नहीं उठायी, नज़र अंदाज़ किया हर बार, दिन में दस बार, बीस बार।

कुत्ते ने बार बार खम्बे के नींव पर रईसजादों के कहने पर, अपना धर्म निभाया और शंका का विसर्जन करता रहा।

एक साल में ही जम्हूरियत वाले खंभे की नींव हिलने लगी, हर कोई यह सब देख सकता था, वो भी जो इसके तले ज़िंदा थे, वो भी जिन्होंने ने इसको नाम दिया।  लेकिन फिर सभी ने इसे अनदेखा करा, उसने भी जिस्सकी दुकान ही सिर्फ इसकी रोशनी से चलती थी और घर भी।

एक दो महीने में खम्बे के तले में जंग चढ़ चुकी, और यह जंग धीरे खम्बे को खोखला करनी लगी मानो खम्बे सिर्फ दिखने में ही मजबूत रह गया हो, लेकिन अब खुद का भी वजन नहीं उठा सकता।

कुत्ते का बचा हुआ काम जंग ने बखूबी किया लेकिन फिर भी कुत्ते और रईसजादो के अनायास प्रयास चलते ही रहे और एक दिन उन्हें भी कामयाबी मिली ही, जब एक रात को खम्बा और जंग न सह सका और भरभरा कर उसी दुकान के ऊपर गिर गया जो उसके सानिध्य में ही थी। 

मर गया वो आदमी, उसी रौशनी से जिसके सहारे वो जीता था, बच गयी तो बस वो बच्ची जो हर बार बच जाती है, उसके पिता उसका नाम सही उम्मीद रखा, हर बार बच जाती है।


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